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डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल – राष्ट्रवंदन अतीत का अभिनंदन
डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल – राष्ट्रवंदन अतीत का अभिनंदन
१६ मई २०२१
आदरणीय अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष हिंदी साहित्य भारती
श्री रविन्द्र शुक्ल जी, केन्द्रीय
महा मंत्री डॉ अनिल जी, उत्तराखंड हिंदी साहित्य भारती के अध्यश
श्री बुद्धिनाथ मिश्र जी, श्रधेय डॉ बुड़ाकोटी जी, आज के कार्यक्रम की सयोजिका डॉ कविता जी, सह सयोजिका
सुश्री निधि जी, सरस्वती वंदना व् मातृवदना को स्वर देने
वाले श्री दिनेश चन्द्र त्रिपाठी जी व् श्री रोशन बलूनी जी सहित सभी उपस्थित
सुधिजनों का हार्दिक अभिनंदन।, मेरा प्रणाम स्वीकार करे.
मुझे अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि हिंदी साहित्य भारती द्वारा राष्टवंदन, अतीत का अभिनंदन कार्यक्रम के
अंतर्गत हिंदी के प्रथम शोध छात्र व् प्रथम डी
लिट् की उपाधि पाने वाले डॉ पीताम्बर बड़थ्वाल जी पर यह कार्यक्रम है. ख़ुशी इसलिए भी कि यदि मेरे अंदर हिंदी के प्रति प्रेम
का भाव जन्मा है उसमें कुछ प्रेरणा उनके कृतित्व से ही मिली है. डॉ बड़थ्वाल जी से मेरा सीधा रिश्ता नहीं परन्तु पारिवारिक सम्बन्ध है.
बचपन में फूफू ( डॉ बड़थ्वाल जी की पुत्रियों ) लोगो को आना जाना था और अक्सर घर
में डॉ बड़थ्वाल जी के बारे में भी बात होती थी. लेकिन बचपन में उनकी शख्सियत से
परिचय न था. एक बार एक पुस्तक हमारे घर आई – मध्य हिमालय में
शिक्षा व् शोध, जो पिताजी माता जी को भेंट मिली थी. एक दिन
पुस्तक उठाई खोली तो पुस्तक के सम्पादक जुयाल जी ने उसे डॉ बड़थ्वाल को समर्पित
किया था उनकी फोटो भी थी. तब थोड़ी जिज्ञासा हुई उन्हें जानने की. फिर हलकी फुलकी
जानकारी मिली पापा जी और माँ से. उनके बारे में जानने का हमेशा मन में रहा. कभी
कभी फूफू लोगो से पता चलता... लेकिन फिर बात आई गई हो
गई.
युवा अवस्था तक मेरा हिंदी से केवल छुटपुट लिख कर
छोड़ देना – ही नाता
था. पढ़ाई हुई हिंदी विषय न था साइंस और फिर मैं १९८७ में वदेश चला गया. तब अकेलपन
को दूर करने हेतु मैंने अपने युवा अवस्था के पुराने शौक - कविता लिखना शुरू किया. तब डॉ बड़थ्वाल जी के बारे में पुन: जानने की इच्छा प्रबल
हुई- खोज की, नेट पर कहीं भी एक दो जगह छोड़ कर कोई ख़ास जानकारी हासिल न हो पाई. आश्चर्य भी हुआ की हिंदी का प्रथम शोध
विद्यार्थी व् प्रथम हिंदी डिलीट के बारे क्यों विस्तार नहीं मिला. जब पहले फूफू
लोगो से बात होती थी तो यह पता लगा कि वे लोग भी असमर्थ रहे प्रचार प्रसार करने व्
उनके कई कार्यो को सरंक्ष्ण देने में. यह भी पता लगा कि कई लोग आते जाते थे और
क्या क्या लेकर जाते थे पता ही नहीं था. खैर तब
मैंने कुछ कार्य इस पर शुरू किया और जानकरी समेट कर ब्लॉग लिखा जिसे उस वक्त कई
डिजिटल प्लेटफोर्म पर, समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया. जो सामान्य जानकरी डॉ
बड़थ्वाल जी के बारे में या फोटोज आपको नेट में
मिलेंगी यह उसका ही हिस्सा है.
हिन्दी के प्रथम शोध विद्यार्थी, प्रथम डी लिट, सफल अन्वेषक, निबंधकार, अध्यापक व साहित्य के मर्मज्ञ श्रद्धेय डॉ बड़थ्वाल जी को याद करते हुये उनकी समृति में पुष्पांजलि अर्पित करता हूँ.
डॉ० पीताम्बर दत्त बडथ्वाल जी का जन्म १३ दिसम्बर १९०१ तथा
मृ्त्यु २४
जुलाई १९४४ दोनो ही पाली ग्राम कोडिया पट्टी, पौडी गढवाल, उत्तराखंड में हुई. उनके पिताजी पंडित गौरीदत्त बड़थ्वाल ज्योतिष व् कर्मकांडी ब्राह्मण थे. डॉ बड़थ्वाल जी
का संस्कृत बोध शायद उसकी का नतीजा रही. १० वर्ष की उम्र में ही उनके पिताजी का
देहांत हुआ तब उनके ताऊ जी स्व श्री मनीराम बड़थ्वाल जी ने उनका लालन पोषण किया.
प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में हुई. फिर मैट्रिक हाईस्कूल की शिक्षा श्रीनगर व् लखनऊ
में हुई. कानपुर आकर उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की.. कानपुर में ही उन्होंने
गढ़वाल के छात्रो का एक संगठन भी बनाया और उसी दौरान हिल्मैन नामक
अंग्रेजी पत्रिका में कहानियां लिखी व संपादन किया.
इंटर के पश्चात् उन्होंने बनारस हिन्दू विश्विधालय
में प्रवेश लिया. लेकिन यहाँ स्वाश्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया. लौट कर वे पाली
आये. तभी उनके ताऊ जी का भी निधन हो गया. लगभग दो वर्ष पाली ही में रहे इसी दौरान पुरुषार्थ
मासिक पत्रिका में उन्होंने "अंबर" नाम से कविताये लिखी. तत्पश्चात १९२४ में बनारस आये, १९२६ में बीए की परीक्षा पास की. तब श्याम सुन्दर दास हिंदी विभाग अध्यक्ष थे. डॉ बड़थ्वाल जी ने १९२८ में
एम् ए किया. उनका छायावाद पर निबंध श्यामसुन्दर
दास जी को बहुत पसंद आया और उन्होंने बड़थ्वाल जो को इस पर शोध के लिए चुना.
बड़थ्वाल जी ने १९२९ में एल एल बी परीक्षा भी पास की, यही पर
डॉ बड़थ्वाल जी की हिंदी विभाग में प्रध्यापक के तौर पर हुई नियुक्ति हुई. उनके शोध कार्य, प्रतिभा, निष्ठा व् ईमानदारी को देखते हुए काशी नागरी
प्रचारणी सभा ने उन्हें संचालक भी बनाया. १९३१ में उन्होंने अपना शोध प्रबंध किया –उस वक्त शोध परीक्षक टी ग्राहम वैली थे और उन्होंने उन्हें पी एच डी के
लिए उपयुक्त माना. कुछ संशोधन के साथ डॉ बड़थ्वाल ने शोध (अंग्रेजी में) को
प्रस्तुत किया व् १९३३ दीक्षांत समरोह में उन्हें में उन्हें हिंदी में प्रथम डी
लिट् पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
डॉ० बड्थ्वाल ने हिन्दी में
शोध की परंपरा और गंभीर अधय्यन को एक मजबूत आधार दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाबू श्यामसुंदर दास जी के विचारो
को आगे बढाया व हिन्दी आलोचना को आधार
दिया. वे उत्तराखंड की ही नहीं भारत की शान है जिन्हें देश विदेशो में सम्मान भी मिला. उत्तराखंड के लोक - साहित्य (गढ़वाल) के प्रति भी उनका अत्यधिक प्रेम था.
उनका आध्यातमिक रचनाओं की ओर लगाव था जो उनके अध्ययन व शोध कार्य में झलकता है. उन्होंने संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, अरबी एवं फारसी के शब्दों और बोली को भी अपने कार्य में प्रयोग किया. उन्होने संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज व विश्लेषण में अपनी रुचि दिखाई और अपने गूढ़ विचारो के साथ इन पर प्रकाश डाला. भक्ति आन्दोलन (शुक्लजी की मान्यता ) को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं माना लेकिन उसे भक्ति धारा का विकास माना. उनके शोध और लेख उनके गम्भीर अध्ययन और उनकी दूर दृष्टि के भी परिचायक हैं। उन्होने कहा था "भाषा फलती फूलती तो है साहित्य में अंकुरित होती है, साधारण बोलचाल पर बोली मँज-सुधरकर साहित्यिक भाषा बन जाती है." जैसा की पहले कहा वे दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी, शोधकर्ता, निबंधकार व समीक्षक थे और उनके निबंध/शोधकार्य को आज भी शोध विद्दार्थी प्रयोग करते है. उनके निबंध का मूल भाव उसकी भूमिका या शुरुआत में ही मिल जाता है.
कबीर, रामानन्द और गोरखवाणी पर डॉ० बडथ्वाल ने बहुत कार्य किया और इसे बहुत से साहित्यकारो ने
अपने लेखो में और शोध कार्यो में शामिल किया साथ ही उनके कहे को पैमाना मान।. यह अवश्य ही चिंताजनक है कि
सरकार और साहित्यकारो ने उनको वो स्थान नही दिया जिसके वे हकदार थे। प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डा॰
रानाडे भी कहा कि “यह केवल हिंदी साहित्य की विवेचना के लिये ही
नहीं अपितु रहस्यवाद की दार्शनिक व्याख्या के लिये भी एक महत्त्वपूर्ण देन है”. उन्होने बहुत ही कम आयु में इस संसार से विदा ले ली अन्यथा
वे हिन्दी में कई और रचनाओ को जन्म देते जो हिन्दी साहित्य को नया आयाम देते. डॉ० संपूर्णानंद ने भी कहा था कि “यदि आयु ने धोखा न दिया होता
तो वे और भी गंभीर रचनाओं का सर्जन करते.“
उन्होने संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी रुचि
दिखाई और अपने गूढ विचारो के साथ इन पर प्रकाश डाला. " हिन्दी काव्य मे निर्गुणवाद" ('द निर्गुण स्कूल आफ हिंदी
पोयट्री' - जो उन्होने श्री श्यामप्रसाद
जी के निर्देशन में किया था). डॉ बड़थ्वाल ने
अपने शोध में सपष्ट किया कि हिन्दी संत काव्य में शून्यवाद, योगसाधना व गुरु का तत्व महत्वपूर्ण है. उन्होने
अनमोल संत साहित्यों को आत्मसात किया. निर्गुण साहित्य की रचना व आध्यत्मिक
रहस्यवाद का सृजन किया तभी संत साहित्य राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर
दृष्टीगोचर हुआ.
डॉ बड़थ्वाल जी ने अपने शोध के लिए निर्गुण संप्रदाय
के कवियों पर सुव्यवस्थित ढंग से विचार किया है. उनके उपदेशो, काव्यों को अध्ययन कर भारतीय संस्कृति को समझने में सहायक रूप प्रदान किया
है. उन्होने माना है कि संतो की सुसंगत विचारधारा को एक विशिष्ट पद्धति का रूप
दिया जा सकता है. निर्गुण पंथ, निर्गुणधारा का उदय वे
सांप्रदायिकता के विरुद्ध ही मानते थे. अँग्रेजी - हिन्दी साहित्य सांख्य, योग व वेदान्त के विद्यार्थी डॉ बड़थ्वाल का
मानना था कि चिंतन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद जब काव्य कि संगत मे आता है तो कल्पना
और भावुकता का आधार पाकर वह रहस्यवाद कि श्रेणी में आ जाता है.
"नाथ सिद्वो की रचनाये " मे ह्ज़ारीप्रसाद द्विवेदी
जी ने भूमिका में लिखा है.
"नाथ सिद्धों की हिन्दी रचनाओं का यह संग्रह कई हस्तलिखित प्रतियों से संकलित हुआ है। इसमें गोरखनाथ की रचनाएँ संकलित नहीं हुईं, क्योंकि स्वर्गीय डॉ० पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की रचनाओं का संपादन पहले से ही कर दिया है और वे ‘गोरख बानी’ नाम से प्रकाशित भी हो चुकी हैं. बड़थ्वाल जी ने अपनी भूमिका में बताया था कि उन्होंने अन्य नाथ सिद्धों की रचनाओं का संग्रह भी कर लिया है, जो इस पुस्तक के दूसरे भाग में प्रकाशित होगा। दूसरा भाग अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है अत्यंत दुःख की बात है कि उसके प्रकाशित होने के पूर्व ही विद्वान् संपादक ने इहलोक त्याग दिया। डॉ० बड़थ्वाल की खोज में 40 पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम 14 ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी. परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है"
डा० बड़थ्वाल ने अपने निबंध में भी संतों के भाव अथवा विषय को ही प्रधानता दी है और उनकी भाषा को गौण स्थान प्रदान किया है. उन्होने संतो कि रचनाओ को भावभिव्यक्ति का एक साधन माना है. संतो के सिद्धांतों साधनाओ और विशेषताओं उबार दिया है. उनका कहना था कि आत्मा जब सृजन कि लहर के अधीन पड़कर स्थूल माया का भोग करती है तो तब वह उरम या उर्मि है। तन और मन के सयुंक्त योग से साधक को अखंड संपूर्णता का अनुभव होता है.
योगमार्गी संतो और विशेषकर कबीर के रहस्यवाद, उनके सबद और साखी पर उनके
व्यक्तव्य से बहुत से साहित्यकार परिचित थे. वे केवल हिंदी ही नहीं अंग्रेज़ी साहित्य के
विद्वानो में वे बहुत चर्चित थे. डॉ बड्थ्वाल जी
ने अपने गुरुओं के साथ हिन्दी की पाठ्यपुस्तके भी तैयार की. साहत्यिक निबंधो के
सृजन और भाषा पर उनकी पकड़ अतुलनीय थी.
डॉ बड़थ्वाल जी हिंदी साहित्य में वो नाम था जिसका
सब मान करते थे. एक बार राष्ट्रीय कवि के चयन के लिए गणेश बाग़, वाराणसी में महात्मा गाँधी
जी की अध्यक्षता में मीटिंग हुई. जिसमे मैथली शरण गुप्त जी को राष्ट्रीय कवि घोषित
किया गया. उस मीटिंग में डॉ बड़थ्वाल जी भी
उपस्थित थे और गुप्त जी के नाम के प्रस्तावको में से एक थे.
उनकी बहुत सी रचनाओ में से कुछ एक पुस्तके "वर्डकेट लाईब्रेरी" के पास सुरक्षित है. हिन्दी साहित्य अकादमी अब भी उनकी पुस्तकें प्रकाशित करती है लेकिन उन पर कई प्रश्न भी खड़े
है, किसने कार्य किया किसके नाम से छपी इत्यादि - इत्यादि.
इसका अकादमी सहित साहित्य जगत को संज्ञान लेना चाहिए. यह चर्चा का मुद्दा है तो
फिर कभी इस पर बात होगी.
डॉ बड़थ्वाल जी को नमन करते हुये यही कहना चाहूँगा और मेरा मानना भी है कि डॉ बड्थ्वाल जी के कई अप्रकाशित साहित्य को निहित स्वार्थ के लिए प्रयोग किया या नष्ट किया गया है. आज साहित्य के पहरेदारों से निवेदन भी है कि भारत में हिन्दी शोध के प्रथम डी लिट को उचित सम्मान, उनके निवास को शोध - संस्थान के रूप में व उनके अप्रकाशित साहित्य को सामने लाने का भरसक प्रयास किया जाना चाहिए.
हिंदी के इस पुरोधा को नमन करते हुए और हिंदी साहित्य भारती का पुन: अभिनंदन करते हुए अपनी बात को समाप्त करता हूँ. धन्यवाद .
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