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रविवार, 13 दिसंबर 2020

13 दिसंबर 2020 – डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जयंती




( डॉ बड़थ्वाल जी की जयंती पर माधव विश्वविद्यालय, पिंडवाड़ा, राजस्थान द्वारा आयोजित अंतराष्ट्रीय वेबिनार में दिया गया व्यक्तव्य )

सभी उपस्थित सुधिजनों का हार्दिक अभिनंदन। खुशी हुई कि माधव विश्वविद्यालय, पिंडवाड़ा राजस्थान द्वारा डॉ पीताम्बर बड़थ्वाल जी की जयंती पर इस बेविनार का आयोजन किया गया है। डॉ देवेन्द्र कुमार सिंह जी का तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ की उन्होंने मुझे इस कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया। डॉ बड्थ्वाल जी के कार्यो पर देवेन्द्र जी ने अपना बहुमूल्य समय दिया है। मैं नहीं जानता कि उनको इसका कितना श्रेय साहित्य के लोगो ने दिया है लेकिन जानता हूँ कि उनके कार्यो का बहुताधिक प्रयोग किया गया है। मैं व्यक्तिगत रूप से डॉ देवेन्द्र जी के प्रयासो को प्रणाम करता हूँ। शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ।  

डॉ रामसुधार सिंह जी, प्रो संजीव कालिया जी, डॉ देवेन्द्र  मुझाल्दा जी, प्रमोद बड्थ्वाल जी, डॉ विदुषी आमेटा जी की गरिमामयी उपस्थिति को नमन करता हूँ। परामर्श मण्डल व आयोजक समिति के सदस्यो का भी धन्यवाद करता हूँ। 

हिन्दी के प्रथम शोध विद्यार्थी, प्रथम डी लिट, सफल अन्वेषक, निबंधकार, अध्यापक व साहित्य के मर्मज्ञ श्रद्धेय डॉ बड़थ्वाल जी को उनके जन्मदिन पर याद करते हुये पुष्पांजलि अर्पित करता हूँ।

मेरा डॉ बड़थ्वाल जी के परिवार – तीनों बेटियो यानि मेरी फूफों लोगो से बहुत ही घनिष्ठ संबन्ध रहा, यही कारण भी है कि मैं उनके बारे में कुछ जान पाया। मेरा हिन्दी प्रेम भी उस रिश्ते का एक हिस्सा है।  हिन्दी साहित्य जगत के लोग उन्हें जानते पहचानते हैं। फिर भी उन लोगो के लिए उनका छोटा सा परिचय रखना चाहूँगा जो उनसे परिचित नहीं है। 

डॉ० पीताम्बर दत्त बडथ्वाल जी का जन्म तथा मृ्त्यु दोनो ही पाली ग्राम( पौडी गढवाल), उत्तराखंड, भारत मे हुई. बाल्यकाल मे उन्होने "अंबर" नाम से कविताये लिखी, फिर कहानियां व संपादन ( हिल्मैन नामक अंग्रेजी पत्रिका) किया। डॉ० बड्थ्वाल ने हिन्दी में शोध की परंपरा और गंभीर अधय्यन को एक मजबूत आधार दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बाबू श्यामसुंदर दास जी के विचारो को आगे बढाया व हिन्दी आलोचना को आधार दिया। वे उत्तराखंड की ही नहीं भारत की शान है जिन्हें देश विदेशो में सम्मान भी मिला. उत्तराखंड के लोक -साहित्य(गढ़वाल) के प्रति भी उनका प्रेम था.

उनका आध्यातमिक रचनाओं की ओर लगाव था जो उनके अध्ययन व शोध कार्य में झलकता है। उन्होंने संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, अरबी एवं फारसी के शब्दों और बोली को भी अपने कार्य में प्रयोग किया। उन्होने संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज व विश्लेषण में अपनी रुचि दिखाई और अपने गूढ़ विचारो के साथ इन पर प्रकाश डाला। भक्ति आन्दोलन (शुक्लजी की मान्यता ) को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं माना लेकिन उसे भक्ति धारा का विकास माना। उनके शोध और लेख उनके गम्भीर अध्ययन और उनकी दूर दृष्टि के भी परिचायक हैं। उन्होने कहा था "भाषा फलती फूलती तो है साहित्य में अंकुरित होती है, बोलचाल में, साधारण बोलचाल पर बोली मँज-सुधरकर साहित्यिक भाषा बन जाती है।"  वे दार्शनिक वयक्तित्व के धनी, शोधकर्ता, निबंधकार व समीक्षक थे।  उनके निबंध/शोधकार्य को आज भी शोध विद्दार्थी प्रयोग करते है। उनके निबंध का मूल भाव उसकी भूमिका या शुरुआत में ही मिल जाता है।

उनकी बहुत सी रचनाओ में से कुछ एक पुस्तके "वर्डकेट लाईब्रेरी" के पास सुरक्षित है। हिन्दी साहित्य अकादमी अब भी उनकी पुस्तकें प्रकाशित करती है।  कबीर, रामानन्द और गोरखवाणी (गोरखबानी, सं. डॉ० पीतांबरदत्त बडथ्वाल, हिंदी साहित्य संमेलन, प्रयाग, द्वि० सं०) पर डॉ० बडथ्वाल ने बहुत कार्य किया और इसे बहुत से साहित्यकारो ने अपने लेखो में और शोध कार्यो में शामिल किया साथ ही उनके कहे को पैमाना मान।. यह अवश्य ही चिंताजनक है कि सरकार और साहित्यकारो ने उनको वो स्थान नही दिया जिसके वे हकदार थे। प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डा॰ रानाडे भी कहा कि “यह केवल हिंदी साहित्य की विवेचना के लिये ही नहीं अपितु रहस्यवाद की दार्शनिक व्याख्या के लिये भी एक महत्त्वपूर्ण देन है”.

उन्होने बहुत ही कम आयु में इस संसार से विदा ले ली अन्यथा वे हिन्दी में कई और रचनाओ को जन्म देते जो हिन्दी साहित्य को नया आयाम देते. डॉ० संपूर्णानंद ने भी कहा था कि “यदि आयु ने धोखा न दिया होता तो वे और भी गंभीर रचनाओं का सर्जन करते।“

ब्लॉग लिखने की शुरूआत में एक रचना उनके परिचय को लेकर लिखी थी उसे आपके समक्ष रखना चाहूँगा।

कर शोध हिन्दी में पहली बार सबको दिखाई नई राह
बने प्रथम भारतीय् जिन्होने शोध कर डी.लिट हिन्दी में पाई
पाली ग्राम (उत्तराखंड) में जन्मा था हिन्दी का ये लाल
नाम इस साहित्य्कार का था डा.पीताम्बर दत्त बडथ्वाल

हिन्दी काव्य मे निर्गुणवाद पर कर गये वो बेहतरीन शोध
संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा, अरबी व फारसी का था उनको बोध
संत, सिद्ध,नाथ और भक्ति का किया उन्होने सूक्ष्म विश्लेषण
दूर दृष्टि के थे वे परिचायक, निबंधकार और थे वे समी़क्षक

हिन्दी को नया आयाम दे गया ये हिन्दी का सेवक
कर गया दुनियाभर में नाम हिन्दी का ये लेखक
छात्र करते है शोध आज भी पढ कर उनकी रचनाये
कह गये जो तब वो, उसे लोग आज भी अपनाये

अल्प आयु मे कह गया अलविदा वो हिन्दी का नायक
दे गया धरोहर हमे गोरखबाणी, नाथ सिद्धो की रचनाओ का
आज भले ही भूल चुका है उन्हे हिन्दी का साहित्य समाज
आओ हिन्दी का सम्मान करे, कर याद इस लेखक को आज

जैसा कि आज इस बेविनार का विषय है ‘निर्गुण हिन्दी संत काव्य एवं डॉ बड्थ्वाल।’ यह विषय डॉ बड़थ्वाल और उनके शोध कार्य से सीधा संबंध रखता हैं।  " हिन्दी काव्य मे निर्गुणवाद" ('द निर्गुण स्कूल आफ हिंदी पोयट्री' - जो उन्होने श्री श्यामप्रसाद जी के निर्देशन में किया था)।  बड़थ्वाल जी के शोध ने संत शब्द का संबंध शांत से भी माना हैं और जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो  – निवृत्ति मार्गी या वैरागी। वैसे तो निर्गुण का अर्थ है – प्राकृत गुणों से रहित । यानि सतो, रजो व तमो से रहित। निर्गुण का सीधा अर्थ होता है गुण रहित लेकिन यहाँ इसका अर्थ गुणातीत है। साहित्य में निर्गुण विशिष्ट काव्य धारा में प्रयोग होता है और इसका भक्ति से सीधा संबंध है। निर्गुण या संत व्यापकता का परिचायक है। महाभारत के कृष्ण भी स्वयं को निर्गुण कहते हैं। हिन्दी संत काव्य में शून्यवाद, योगसाधना व गुरु का तत्व महत्वपूर्ण है, यह डॉ बड़थ्वाल ने अपने शोध में सपष्ट किया।  उन्होने अनमोल संत साहित्यों को आत्मसात किया। निर्गुण साहित्य की रचना व आध्यत्मिक रहस्यवाद का सृजन करने वाले डॉ बड़थ्वाल ने हिन्दी साहित्य को नया आयाम दिया तभी संत साहित्य राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर दृष्टीगोचर हुआ। उन्होने संत, सिद्घ, नाथ और भक्ति साहित्य की खोज और विश्लेषण में अपनी रुचि दिखाई और अपने गूढ विचारो के साथ इन पर प्रकाश डाला। भक्ति आन्दोलन  ( शुक्लजी की मान्यता ) को हिन्दू जाति की निराशा का परिणाम नहीं माना बल्कि उसे भक्ति धारा का विकास माना। उनके शोध और लेख उनके गम्भीर अध्ययन और उनकी दूर दृष्टि के भी परिचायक हैं।  डॉ बड़थ्वाल जी ने अपने शोध के लिए निर्गुण संप्रदाय के कवियों पर सुव्यवस्थित ढंग से विचार किया है। उनके  उपदेशो, काव्यों को अध्ययन कर भारतीय संस्कृति को समझने में सहायक रूप प्रदान किया है। उन्होने माना है कि संतो की सुसंगत विचारधारा को एक विशिष्ट पद्धति का रूप दिया जा सकता है। निर्गुण पंथ, निर्गुणधारा का उदय वे सांप्रदायिकता के विरुद्ध ही मानते थे। अँग्रेजी - हिन्दी साहित्य सांख्य, योग व वेदान्त के विद्यार्थी डॉ बड़थ्वाल का मानना था कि चिंतन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद जब काव्य कि संगत मे आता है तो कल्पना और भावुकता का आधार पाकर वह रहस्यवाद कि श्रेणी में आ जाता है।     

"नाथ सिद्वो की रचनाये " मे ह्ज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी ने भूमिका में लिखा है

"नाथ सिद्धों की हिन्दी रचनाओं का यह संग्रह कई हस्तलिखित प्रतियों से संकलित हुआ है। इसमें गोरखनाथ की रचनाएँ संकलित नहीं हुईं, क्योंकि स्वर्गीय डॉ० पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ की रचनाओं का संपादन पहले से ही कर दिया है और वे ‘गोरख बानी’ नाम से प्रकाशित भी हो चुकी हैं (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग)। बड़थ्वाल जी ने अपनी भूमिका में बताया था कि उन्होंने अन्य नाथ सिद्धों की रचनाओं का संग्रह भी कर लिया है, जो इस पुस्तक के दूसरे भाग में प्रकाशित होगा। दूसरा भाग अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है अत्यंत दुःख की बात है कि उसके प्रकाशित होने के पूर्व ही विद्वान् संपादक ने इहलोक त्याग दिया। डॉ० बड़थ्वाल की खोज में 40 पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम 14 ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है।"

डॉ बड़थ्वाल जी के शोध का दायरा बहुत विस्तृत था। उदाहरण के तौर पर उनकी खोज व संग्रह जैसे तुरसीदास के 4202 साखी 461 पद चार ग्रंथ तथा सेवादास कि 3561 साखियाँ, 402 पद, 399 कुंडलियअन 10 ग्रंथ जैसे कई संतो का संग्रह उनके पास था।  डॉ बड़थ्वाल ने निरंजन धारा को भी सिद्धनाथ व निर्गुण धारा की तरह ही लौकिक नहीं आध्यात्मिक माना है। वे कहते हैं कि निरञ्जनी कविताओं में प्रेम ततत्व का महत्व योग तत्व से कम नहीं। इंद्रियो का दमन  नहीं बल्कि शमन अनिवार्य हैं। शमन में प्रेम तत्व से ही सफलता प्रकट होती है। डॉ बड़थ्वाल ने इसलामी शासन को संतमत के उत्थान मे बेसक सहायक माना है लेकिन उनका साफ कहना था की संतमत के उद्भव में उसका कोई हाथ नहीं है।

डा० बड़थ्वाल ने अपने निबंध में संतों के भाव अथवा विषय को ही प्रधानता दी है और उनकी भाषा को गौण स्थान प्रदान किया है। उन्होने संतो कि रचनाओ को भावभिव्यक्ति का एक साधन माना है। उनके निबंधों में भी संतो के सिद्धांतों साधनाओ और विशेषताओं के बारे में अधिक पढ़ने को मिलेगा। उनका कहना था कि आत्मा जब सृजन कि लहर के अधीन पड़कर स्थूल माया का भोग करती है तो तब वह उरम या उर्मि है। तन और मन के सयुंक्त योग से साधक को अखंड संपूर्णता का अनुभव होता है।

योगमार्गी संतो और विशेषकर कबीर के रहस्यवाद, उनके सबद और साखी पर उनके व्यक्तव्य से बहुत से साहित्यकार परिचित थे। हिन्दी ही नहीं अंग्रेज़ी साहित्य के विद्वानो में वे बहुत चर्चित थे। डॉ बड्थ्वाल जी ने अपने गुरुओं के साथ हिन्दी की पाठ्यपुस्तके भी तैयार की। साहत्यिक निबंधो के सृजन और भाषा पर उनकी पकड़ अतुलनीय थी। 

अंत में डॉ बड़थ्वाल जी को नमन करते हुये यही कहना चाहूँगा और मेरा मानना भी है कि डॉ बड्थ्वाल जी के कई अप्रकाशित साहित्य को निहित स्वार्थ के लिए प्रयोग किया या नष्ट किया गया है। आज साहित्य के पहरेदारों से निवेदन भी है कि भारत में हिन्दी शोध के प्रथम डी लिट को उचित सम्मान, उनके निवास को शोध - संस्थान के रूप में व उनके अप्रकाशित साहित्य को सामने लाने का भरसक प्रयास किया जाना चाहिए।

आप सभी का धन्यवाद व सादर नमस्कार।

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
१३ दिसंबर २०२०

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